रतलाम

उपनिषद कथा द्वितीय दिवस -आचार्य योगेश जी वैदिक

रतलाम। उपनिषद कथा द्वितीय दिवस महर्षि दयानंद वैदिक विद्यालय परिसर परिसर इंदिरा नगर आर्य समाज रतलाम के तत्वाधान में उपनिषद कथा का आयोजन हो रहा है कथा के वक्ता दर्शन योग धाम गांधीनगर, गुजरात के आचार्य योगेश जी वैदिक हैं। उपनिषद कथा द्वितीय दिवस कार्यक्रम की शुरुआत श्रीमती निधि अग्रवाल एवं श्री रामबहादुर शास्त्री के भजन से हुआ। स्वागत श्रीमती गीता देवी गुप्ता ,श्रीमती गोखले ,श्री राधावल्लभ खंडेलवाल -जनशक्ति, श्री राज ऋषि दुबे, प्रभु प्रेम संघ के श्री पाल साहब एवं आर्य समाज के पदाधिकारी द्वारा किया गया। श्री राज कुमार गनवानी निरंकारी सत्संग रतलाम प्रमुख का ओम पट्टिका पित वस्त्र से सम्मान किया गया।
मनुष्य जिस व्यक्ति या वस्तु से अनुकूलता पाता है सुख पाता है उसी के प्रति उसका राग जागृत हो जाता है, क्योंकि वह वस्तु या व्यक्ति उसके लिए सुखकारी सिद्ध हुआ और उसी से निरंतर सुखलाभ लेने की अभिलाषा राग से मोह में बदल जाती है, जब मोह में पड़ता है मूढ़ता छाती है तो केवल और केवल दुख ही उसके हिस्से आता है।
मनुष्यों को चाहिए वह वस्तु और व्यक्ति से लाभ ले और लाभ दे पर राग न होने दे यदि राग मोह में बदल गया तो व्यक्ति का पतन निश्चित है।
इसलिए उपनिषद में कहा त्यक्तेन भुंजीथा: आसक्ति रहित होकर उपभोग करो, मा गृध: लोभ मत करो।
सब कुछ ईश्वर का ही दिया हुआ है और पद पैसा प्रतिष्ठा आज प्राप्त है वही कल अप्राप्त होगा, क्योंकि जो उपाधि अथवा पद मिला है वह छूटने ही वाला है। इसलिए जब तक हो जिस पद पर जिस संबंध में तब तक अनासक्त भाव से अपने पद के दायित्व का निर्वहन करो अपने धर्म को निभाओ।
यदि पद का दुरुपयोग किया तब भी विनाश है और यदि पद उपाधि के प्रति आसक्ति रखी तब भी विनाश ही है। इसलिए मनुष्य को कर्तव्य परायण जीवन यापन करना चाहिए।
मनुष्य को जीवन यूंही नहीं मिला है, अपितु सप्रयोजन मिला है। प्रयोजन की सिद्धि हेतु मनुष्य निरंतर पुरुषार्थ करे बिना कर्म किए एक क्षण भी विश्राम न पाए। पवित्र बुद्धि सुसंगति उत्तम शिक्षा और पुरुषार्थ से मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव निष्काम कर्म करता हुआ ही जीने की इच्छा करे, क्योंकि निष्काम कर्म बंधन में नहीं डालता अपितु मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है अतैव मनुष्य शुभ कर्म करते हुए ही १०० वर्ष जीने की इच्छा करे।
माता पिता को चाहिए की वह अपनी संतानों को आत्मनिर्भर और कर्मशील होने की शिक्षा दे, क्योंकि दीन हीन अवस्था मृत्यु सदृश है, दीन भाव से ग्रसित मनुष्य की जिजीविषा समाप्त हो जाती है। मनुष्य शुभ संकल्पों को धारण करता हुआ ही इस जीवन को आनंद उल्लास पूर्वक जीये और इस प्रकार का मनन चिंतन रखे कि वह संसार में ही आसक्त न रह जाए अपितु संसार पति की प्राप्ति कर जाए।
ऐसे ही कई आध्यात्मिक प्रसंगों को उपनिषद कथा के अंतर्गत आचार्य श्री ने जनमानस के समक्ष रखा। श्रवण उपनिषद कथा में क्षेत्र के गणमान्य नागरिक महिलाएं एवं पुरुष बड़ी संख्या में उपस्थित थे।यह जानकारी श्री प्रकाश जी अग्रवाल ने दी।

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